सोमवार, 23 जुलाई 2012

"आजाद"

क्षमा करें ............ बहुत समय पश्चात आप लोगों के समक्ष उपस्थित हो पाया हूँ । क्या कहूँ कार्यालय में इतनी व्यस्तता थी कि नए लेख के लिए समय ही नहीं मिल पा रहा था ,आप लोगों के समक्ष उपस्थित होने में एक लम्बा समय अंतराल रहा, मै क्षमाप्राथी हूँ।आज मै अपने इस नए लेख में आप लोगों के समक्ष  "आज़ाद" जी की विजय गाथा प्रस्तुत करने जा रहा हूँ तथा उम्मीद करता हूँ की यह लेखा आप लोगों को अवश्य पसंद आये !


पंडित चन्द्रशेखर आजाद का जन्म उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले के बदरका में 23 जुलाई 1906 को हुआ था। इनके पिता पं० सीताराम तिवारी जी थे और मां का नाम जगरानी देवी था। आजाद उग्र और लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानी थे। वे पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल और सरदार भगत सिंह सरीखे महान क्रान्तिकारियों के साथियों में से थे।
आजाद का शुरुआती जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भावरा गांव में बीता अतएव बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाये। इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी ।
एक बार आजाद के पिता पं० सीताराम तिवारी जी की पत्नी पडोसी के यहां से नमक मांग लायीं इस पर तिवारी जी ने उन्हें बहुत डांटा और इसकी सामूहिक सजा स्वरूप चार दिन तक परिवार में सबने बिना नमक के भोजन किया। ईमानदारी और स्वाभिमान के ये गुण बालक चन्द्रशेखर ने अपने पिता से विरासत में सीखे थे।
1920-21 के वर्षों में वे गाँधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़े। वे गिरफ्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए, जहां उन्होंने अपना नाम 'आजाद', पिता का नाम 'स्वतंत्रता' और 'जेल' को उनका निवास बताया। उन्हें 15 कोड़ों की सजा दी गई। हर कोड़े के वार के साथ उन्होंने, 'वन्दे मातरम्‌' और 'महात्मा गाँधी की जय' का स्वर बुलन्द किया। इसके बाद वे सार्वजनिक रूप से आजाद कहलाए।  
1922 में गांधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया  बालक चन्द्रशेखर आज़ाद का मन अब देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था, और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन के सक्रिय सदस्य बन गये। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहले 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया और फरार हो गये।
 इसके बाद 1927 में 'बिस्मिल' के साथ 4 प्रमुख साथियों के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का गठन किया और भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स का वध करके लिया और दिल्ली पहुंच कर असेंबली बम कांड को अंजाम दिया।
वे अपने माउजर को बमतुल बुखारा कहते थे। चंद्रशेखर आजाद लेखक, कवि भी थे। इनका एक शेर जो दिल को दहलाने के लिए काफी है-
 "अभी शमशीर कातिल ने, न ली थी अपने हाथों में। हजारों सिर पुकार उठे, कहो दरकार कितने हैं॥"
उन्होंने संकल्प किया था कि वे न कभी पकड़े जाएंगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फांसी दे सकेगी। इसी संकल्प को पूरा करने के लिए अल्फ्रेड पार्क, इलाहाबाद  में उन्होंने स्वयं को गोली मारकर मातृभूमि के लिए प्राणों की आहुति दी। 
जय हिंद जय भारत 

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

वीर यशवंतराव होलकर

क्षमा करें ............ बहुत समय पश्चात आप लोगों के समक्ष उपस्थित हो पाया हूँ । क्या कहूँ कार्यालय में इतनी व्यस्तता थी कि नए लेख के लिए समय ही नहीं मिल पा रहा था , और मेरे विचार से हमे या तो ब्लॉग में अच्छे लेख प्रस्तुत करने चाहिए अन्यथा नहीं और अच्छे लेख समयाभाव में नहीं लिखे जा सकते । यही कारण है की आप लोगों के समक्ष उपस्थित होने में एक लम्बा समय अंतराल रहा, मै क्षमाप्राथी हूँ।आज मै अपने इस नए लेख में आप लोगों के समक्ष महाराज यशवंतराव होलकर की विजय गाथा प्रस्तुत करने जा रहा हूँ तथा उम्मीद करता हूँ की यह लेखा आप लोगों को अवश्य पसंद आये !
एक ऐसा भारतीय शासक जिसने अकेले दम पर अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था। इकलौता ऐसा शासक, जिसका खौफ अंग्रेजों में साफ-साफ दिखता था। एकमात्र ऐसा शासक जिसके साथ अंग्रेज हर हाल में बिना शर्त समझौता करने को तैयार थे। एक ऐसा शासक, जिसे अपनों ने ही बार-बार धोखा दिया, फिर भी जंग के मैदान में कभी हिम्मत नहीं हारी। इतना महान था वो भारतीय शासक, फिर भी इतिहास के पन्नों में वो कहीं खोया हुआ है। उसके बारे में आज भी बहुत लोगों को जानकारी नहीं है। उसका नाम आज भी लोगों के लिए अनजान है। उस महान शासक का नाम है - यशवंतराव होलकर। यह उस महान वीरयोद्धा का नाम है, जिसकी तुलना विख्यात इतिहास शास्त्री एन एस इनामदार ने 'नेपोलियन' से की है। आज मुझे इसी वीर योद्धा के बारे में बताने का अवसर मिला है ।
पश्चिम मध्यप्रदेश की मालवा रियासत के महाराज यशवंतराव होलकर का भारत की आजादी के लिए किया गया योगदान महाराणा प्रताप और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कहीं कम नहीं है। यशवतंराव होलकर का जन्म 1776 ई. में हुआ। इनके पिता थे - तुकोजीराव होलकर। होलकर साम्राज्य के बढ़ते प्रभाव के कारण ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया ने यशवंतराव के बड़े भाई मल्हारराव को मौत की नींद सुला दिया। इस घटना ने यशवंतराव को पूरी तरह से तोड़ दिया था। उनका अपनों पर से विश्वास उठ गया। इसके बाद उन्होंने खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया। ये अपने काम में काफी होशियार और बहादुर थे। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1802 ई. में इन्होंने पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय व सिंधिया की मिलीजुली सेना को मात दी और इंदौर वापस आ गए। इस दौरान अंग्रेज भारत में तेजी से अपने पांव पसार रहे थे। यशवंत राव के सामने एक नई चुनौती सामने आ चुकी थी। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराना। इसके लिए उन्हें अन्य भारतीय शासकों की सहायता की जरूरत थी। वे अंग्रेजों के बढ़ते साम्राज्य को रोक देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया से एकबार फिर हाथ मिलाया और अंग्रेजों को खदेड़ने की ठानी। लेकिन पुरानी दुश्मनी के कारण भोंसले और सिंधिया ने उन्हें फिर धोखा दिया और यशवंतराव एक बार फिर अकेले पड़ गए। उन्होंने अन्य शासकों से एकबार फिर एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का आग्रह किया, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद उन्होंने अकेले दम पर अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिलाने की ठानी। 8 जून 1804 ई. को उन्होंने अंग्रेजों की सेना को धूल चटाई। फिर 8 जुलाई, 1804 ई. में कोटा से उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ दिया। 11 सितंबर, 1804 ई. को अंग्रेज जनरल वेलेस्ले ने लॉर्ड ल्युक को लिखा कि यदि यशवंतराव पर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो वे अन्य शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देंगे। इसी मद्देनजर नवंबर, 1804 ई. में अंग्रेजों ने दिग पर हमला कर दिया। इस युद्ध में भरतपुर के महाराज रंजित सिंह के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजों को उनकी नानी याद दिलाई। यही नहीं इतिहास के मुताबिक उन्होंने 300 अंग्रेजों की नाक ही काट डाली थी। अचानक रंजित सिंह ने भी यशवंतराव का साथ छोड़ दिया और अंग्रजों से हाथ मिला लिया। इसके बाद सिंधिया ने यशवंतराव की बहादुरी देखते हुए उनसे हाथ मिलाया। अंग्रेजों की चिंता बढ़ गई। लॉर्ड ल्युक ने लिखा कि यशवंतराव की सेना अंग्रेजों को मारने में बहुत आनंद लेती है। इसके बाद अंग्रेजों ने यह फैसला किया कि यशवंतराव के साथ संधि से ही बात संभल सकती है। इसलिए उनके साथ बिना शर्त संधि की जाए। उन्हें जो चाहिए, दे दिया जाए। उनका जितना साम्राज्य है, सब लौटा दिया जाए। इसके बावजूद यशवंतराव ने संधि से इंकार कर दिया। वे सभी शासकों को एकजुट करने में जुटे हुए थे। अंत में जब उन्हें सफलता नहीं मिली तो उन्होंने दूसरी चाल से अंग्रेजों को मात देने की सोची। इस मद्देनजर उन्होंने 1805 ई. में अंग्रेजों के साथ संधि कर ली। अंग्रेजों ने उन्हें स्वतंत्र शासक माना और उनके सारे क्षेत्र लौटा दिए। इसके बाद उन्होंने सिंधिया के साथ मिलकर अंग्रेजों को खदेड़ने का एक और प्लान बनाया। उन्होंने सिंधिया को खत लिखा, लेकिन सिंधिया दगेबाज निकले और वह खत अंग्रेजों को दिखा दिया। इसके बाद पूरा मामला फिर से बिगड़ गया। यशवंतराव ने हल्ला बोल दिया और अंग्रेजों को अकेले दम पर मात देने की पूरी तैयारी में जुट गए। इसके लिए उन्होंने भानपुर में गोला बारूद का कारखाना खोला। इसबार उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ने की ठान ली थी। इसलिए दिन-रात मेहनत करने में जुट गए थे। लगातार मेहनत करने के कारण उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा। लेकिन उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और 28 अक्टूबर 1806 ई. में सिर्फ 30 साल की उम्र में वे स्वर्ग सिधार गए। इस तरह से एक महान शासक का अंत हो गया। एक ऐसे शासक का जिसपर अंग्रेज कभी अधिकार नहीं जमा सके। एक ऐसे शासक का जिन्होंने अपनी छोटी उम्र को जंग के मैदान में झोंक दिया। यदि भारतीय शासकों ने उनका साथ दिया होता तो शायद तस्वीर कुछ और होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक महान शासक यशवंतराव होलकर इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया और खो गई उनकी बहादुरी, जो आज अनजान बनी हुई है।
जय हिंद जय भारत.....

बुधवार, 20 जनवरी 2010

इशु की गाथा

क्षमा करें ............ बहुत समय पश्चात आप लोगों के समक्ष उपस्थित हो पाया हूँ । क्या कहूँ कार्यालय में इतनी व्यस्तता थी कि नए लेख के लिए समय ही नहीं मिल पा रहा था , और मेरे विचार से हमे या तो ब्लॉग में अच्छे लेख प्रस्तुत करने चाहिए अन्यथा नहीं और अच्छे लेख समयाभाव में नहीं लिखे जा सकते । यही कारण है की आप लोगों के समक्ष उपस्थित होने में एक लम्बा समय अंतराल रहा, मै क्षमाप्राथी हूँ।
आज मै अपने इस नए लेख में आप लोगों के समक्ष प्रभु इसु की विजय गाथा प्रस्तुत करने जा रहा हूँ तथा उम्मीद करता हूँ की यह लेखा आप लोगों को अवश्य पसंद आये । माना जाता है कि ईसा का जन्म इस्राइल के प्रान्त के एक गाँव बैतलहम में बहुत कठिन परिस्थितियों में हुआ था । उनकी माता मारिया (मरियम) उनके जन्म के समय कुमारी थीं (नाम-मात्र के लिये उनकी युसुफ़ से शादी हो गयी थी) । बाइबिल के मुताबिक मारिया को ईश्वर द्वारा सन्देश मिला था कि उनके गर्भ से ईश्वरपुत्र जन्म लेगा । यहूदी धर्मगुरुओ ने सदियों पहले एक उद्धारक या मुक्तिदाता (मसीहा) के आने की भविष्यवाणी की (जो इसा थे )। ईसा और उनका परिवार जन्मजात यहूदी थे । पौने दो हजार साल पहले की बात है। फिलिस्तीन में उन दिनों हिरोद का राज था। इसी दौरान यूसुफ नाम का यहूदी बढ़ई नज़रथ नगर से बैतलहम के लिए रवाना हुआ। वहीं पर उसकी पत्नी मरियम के गर्भ से ईसा का जन्म हुआ। संयोग ऐसा था कि उस समय इन बेचारों को किसी धर्मशाला में भी ठिकाना न मिल सका। इस लाचार बच्चे को कपड़ों में लपेटकर चरनी (पशुओं की नाद) में रख दिया गया। आठवें दिन बच्चे का नाम रखा गया, यीसु या ईसा। उन दिनों ऐसी प्रथा थी कि माता-पिता बड़े बेटे को ईश्वर को अर्पित कर देते थे। इन लोगों ने भी इसी तरह ईसा को अर्पित कर दिया। ईसा दिन-दिन बड़े हो जब बारह वर्ष के हुए, तो यरूशलम में दो दिन रुककर पुजारियों से ज्ञान चर्चा करते रहे। सत्य को खोजने की वृत्ति उनमें बचपन से ही थी।
ईसा जब 30 साल के हुए, तो एक दिन किसी से उन्होंने सुना कि पास के जंगल में जॉर्डन नदी के किनारे एक महात्मा रहते हैं। उनका नाम है, यूहन्ना (जॉन)। बहुत से लोग उनका उपदेश सुनने जाते थे। ईसा को भी उत्सुकता हुई। वे भी यूहन्ना का उपदेश सुनने के लिए निकल पड़े।ईसा को यूहन्ना की बातें बहुत जँचीं। उन्होंने यूहन्ना से दीक्षा ले ली। उनकी बातों पर गहरा विचार करने के लिए वे घर लौटने के बजाय जंगल में ही रह गए। यूहन्ना की बातों पर ईसा ने गहराई से चिंतन और मनन किया और अंत में निश्चय किया कि हमें प्रभु की इच्छा के अनुसार प्रभु की सेवा करनी चाहिए।इसके बाद प्रभु ईसा जगह-जगह प्रवचन करने लगे। वे लोगों से कहते, प्रभु का राज्य कहीं दूर नहीं है वह हमारे भीतर ही है। हमारी आत्मा के ही भीतर है। हमें ही उसकी स्थापना करनी होगी। हम अपने आपको बदलकर, अपने में परिवर्तन करके प्रभु का राज्य ला सकते हैं। ईसा की प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी , ईसा ने कई चमत्कार भी किये ।वह कहते थे 'पैसे वालों का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं हो सकता। सूई के छेद से ऊँट भले निकल जाए, धनवान व्यक्ति प्रभु के राज्य में नहीं पहुँच सकता। अपनी सारी दौलत गरीबों में बाँटकर, मेरे साथ आओ।
ऐसी बातें सुनकर पैसे वाले लोग ईसा के विरोधी बन गए। पुरानी गलत प्रथाओं का भी ईसा ने विरोध किया। सत्य के लिए वे किसी की परवाह नहीं करते थे। नतीजा यह हुआ कि दिन-दिन उनका विरोध बढ़ने लगा।सन्‌ 29 ई। के लगभग प्रभु ईसा यरुशलम पहुँचे। वही उनको पकड़ने और दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया।यहूदियों के कट्टरपन्थी रब्बियों (धर्मगुरुओं) ने ईसा का भारी विरोध किया । उन्हें ईसा में मसीहा जैसा कुछ ख़ास नहीं लगा । उन्हें अपने कर्मकाण्डों से प्रेम था । ख़ुद को ईश्वरपुत्र बताना उनके लिये भारी पाप था । इसलिये उन्होंने उस वक़्त के रोमन गवर्नर पिलातुस को इसकी शिकायत कर दी । रोमनों को हमेशा यहूदी क्रान्ति का डर रहता था । इसलिये कट्टरपन्थियों को प्रसन्न करने के लिये पिलातुस ने ईसा को क्रूस (सलीब) पर मृत्युदण्ड की दर्दनाक सज़ा सुनाई । ईसाइयों का मानना है कि क्रूस पर मरते समय ईसा मसीह ने सभी इंसानों के पाप स्वयं पर ले लिये थे और इसलिये जो भी ईसा में विश्वास करेगा, उसे ही स्वर्ग मिलेगा। ईसा के 12 शिष्यों ने उनके नये धर्म को सभी जगह फैलाया । यही धर्म ईसाई धर्म कहलाया ।

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गुरुवार, 13 अगस्त 2009

ईसप का विद्रोह

अपने पहले लेख में मैंने अपने जीवन के उस पल का वर्णन किया था जिसने मुझे मेरे जीवन का लक्ष्य दियायदि आपने फ़िल्म " शान्ति ॐ" देखी होगी तो आपको नायक शाहरुख खान के द्बारा कहे गए ये वाक्य तो याद ही होंगे कि "यदि कोई इंसान सच्चे मन और लगन से कुछ पाने की ख्वाहिश करता हैं तो सारी कायनात उसे उसकी ख्वाहिश से मिलाने की जद्दोजहत में जुट जाती है" | मेरे ब्लॉग विजयीभव का उद्देश्य यही है कि हम इस ब्लॉग उन विजयगाथाओं पर चर्चा कर सके जो निश्चित रूप से इंसान के दृढ़ निश्चय,आत्म विश्वास, सकारात्मक सोच और जीत की उम्मीद के परिणाम हों |

इसी क्रम में अपने इस लेख मै आज आप लोगों का परिचय कथाकार इसप के विजयगाथा से कराना चाहूँगा जिन्हें अपनी विजय मरणोपरांत प्राप्त हुई ...........................................

आज ईसप की कहानियाँ संसार के हर देश में पढ़ी और सुनी जाती हैं। लोग बहुत आदर से बाबा ईसप को याद करते हैं। संसार के बड़े-से बड़े लेखक और कलावंत भी उनके सम्मान में सिर झुकाते हैं, इसलिए कि बाबा ईसप की कथाओं में जादू है। ये वे कथाएँ हैं जो बच्चों और बड़ों, सभी को लुभाती हैं। शायद ही कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति हो, जिसने बाबा ईसप की कोई दिलचस्प कथा न पढ़ी हो। ये कथाएँ बेहद लोकप्रिय हैं, पर इनकी लोकप्रियता के पीछे यह बात भी छिपी हुई है कि इनके पीछे सच्चाई की ताकत है। ये कहानियाँ हमें खुली आँखों से दुनिया को देखने और निर्भयता से जीने की सीख देती हैं, साथ ही अन्याय का विरोध करना भी सिखाती है। इसीलिए दुनिया भर में बाबा ईसप की कहानियाँ प्रसिद्ध हैं।लेकिन इन कथाओं को बुननेवाले बाबा ईसप का जीवन भी खुद एक कहानी है-बड़ी ही दर्दनाक कहानी। उनका जन्म करीब ढाई हजार साल पहले यूनान में हुआ था। तब यूनान में दास-प्रथा का जोर था। मनुष्यों को दास बनाकर बाजारों में बेचा जाता था, जैसे गाय-बैल और गधे बिकते हैं। धनवान लोग थोड़ा-सा धन देकर उन्हें खरीद ले जाते थे और उनसे मन चाहे काम कराते थे। उन्हें बुरी तरह सताया जाता था। उन पर ऐसे अत्याचार होते थे कि उनके बारे में जानकार रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उन्हें घो़ड़ों की तरह गाड़ियों में जोता जाता था। अगर वे तेज न चल पाते तो पीठ पर कोड़ों की बरसात होती थी।इसी तरह बाजार में बिकनेवाला एक दास ईसप भी था। ईसप तब नवयुवक ही था और उसके भीतर स्वाभिमान व आजादी की आँधी मचल रही थी। उसने अपनी ही तरह जोशीले और ताकतवर उन दासों को इकट्ठा कर किया, जो गुलामी से घृणा करते थे। सबने मिलकर एक मजबूत दल बना लिया और विद्रोह कर दिया। आसमान उनके जोशीले नारों से गूँजने लगा। वे आवेग से भरकर कह रहे थे-‘‘आखिर हम भी इनसान हैं, हम पर ये अत्याचार किसलिए ? हमारे पास भी दो हाथ-पैर हैं। हमारे मन में भी उमंगें हैं। हम जो चाहें, वह कर सकते हैं। हम कुत्तों की मौत मरने के लिए हरगिज तैयार नहीं। हम अत्याचार नहीं सहेंगे और अपना अधिकार प्राप्त करके रहेंगे।’’इन जोशीले नारों से धनी लोगों की नींद उड़ गई। भला वे यह बात कैसे स्वीकार कर सकते थे कि दास लोग खुल्लम-खुल्ला विद्रोह कर दें और अपनी आजादी की माँग करने लगे। उन्हें यह भी पता था कि ईसप ही उनका नेता है। आखिर सब धनवानों ने मिलकर ईसप को कैद कर लिया। उसे भयानक यातनाएँ दी गई। गरम लोहे से उसके पूरे शरीर को दागा गया। लेकिन ईसप शांत था। वह चुपचाप होठ भीचें अत्याचारों को सह रहा था। उसका मन कह रहा था कि उसने कुछ भी गलत नहीं किया। आखिर हर आदमी को जिसने इस धरती पर जन्म लिया है, आजादी से जीने का हक है।तरह-तरह से सताने और मारने-पीटने के बाद ईसप को अब एक अँधेरी काल-कोठरी में डाल दिया गया, जहाँ धूप, हवा, रोशनी तक उसके पास नहीं आ सकती थी। वह मन-ही-मन घुटता रहता था। पिंजरे में डाले गए शेर की तरह मन-ही-मन छटपटाता रहता था। जमीन पर सिर पटक-पटककर बेहोश हो जाता।इसी तरह एक-एक कर कितने ही साल गुजर गए। ईसप को अब साल, महीने तो क्या याद रहते ! वह तो दिन और रात का अंतर करना ही भूल गया, क्योंकि उसकी अँधेरी कोठरी में तो हमेशा रात ही रहती थी। न उसे गरमी, जाड़े, बरसात का पता चलता था और न मौसम के बदलने का। धीरे-धीरे इतने साल गुजर गए कि ईसप बूढ़ा हो गया। यहाँ तक कि उसके घर के लोग भी उसे भूल गए।धनी लोगों ने जब देखा कि ईसप अब दीन-हीन बूढ़ा और लाचार हो गया है तो उन्होंने दया करके उसे काल-कोठरी से मुक्त कर दिया।ईसप जब काल कोठरी से बाहर आया तो बहुत कमजोर हो चुका था। यह अंदाज लगा पाना ही मुश्किल था कि इस आदमी में कभी इतनी ताकत थी कि इसने दासों में विद्रोह की भावना पैदा कर दी थी और धनी व शक्तिशाली लोग इसके कारण थर-थर कांपते थे। लेकिन अब ईसप की कमर झुककर तीर-कमान हो गई थी। आँखों से कुछ दिखाई नहीं देता था। कान बहरे हो गए थे। सिर पर उलझी जटाएँ थीं। दाढ़ी सफेद हो चुकी थी।ईसप के साथी ही अब उसे देखकर दूर भाग जाते थे। उन्हें डर था कि ईसप के साथ देख लिए जाने पर अब भी धनवान लोग उन पर अत्याचार करेंगे। इसलिए ईसप अब भीख माँगने को मजबूर हो गया। वह घर-घर जाता, बच्चों को दुआएँ देता, आशीर्वाद देता और भीख माँगता। कभी-कभी वह कहानियाँ भी सुनाया करता था। इसलिए बच्चे उसे देखकर दूर से दौड़े चले आते थे। दूर से ही चिल्लाकर कहते-‘‘बाबा, कहानी सुनाओ, कोई नई कहानी !’’ईसप उन्हें नई-से-नई कहानियाँ गढ़कर सुनाया करता। वे कहानियाँ ऐसी थीं जिन्हें सुनकर बच्चे खो जाया करते थे। जिन्हें सुनकर कभी वे रोते, कभी हँसते और कभी गुस्से से भर जाया करते थे, क्योंकि ये कहानियाँ उन्हें अन्याय का विरोध करना सिखाती थीं। इनमें जीवन के बड़े-बड़े सत्य छिपे थे। बाबा ईसप ने मानो अपने सारे जीवन के अनुभवों का सार इनमें निचोड़कर रख दिया था। इसीलिए इन कहानियों का असर बिलकुल जादू जैसा होता था। जो एक बार सुन लेता, वह इन कहानियों को कभी भूल ही न पाता।इसलिए बाबा ईसप द्वारा बच्चों को सुनाई गई ये कहानियाँ देखते-ही देखते घर-घर में फैलती चली गईं। पूरे यूनान में उनकी गूँज सुनाई देने लगी और फिर ये धीरे-धीरे सारी दुनिया में फैल गई। इन कहानियों में पशु-पक्षियों के जरिए बातें कही गई हैं; पर वे बातें इतनी बड़ी हैं कि जो भी सुनता है, देर तक सोचता ही रह जाता है। इसीलिए इन कहानियों का असर बहुत गहरा होता है।सच तो यह है कि ईसप अपने जीते-जी विद्रोह नहीं कर पाये , वह विद्रोह और परिवर्तन इन कहानियों के जरिए आया। देखते-ही-देखते समाज बदला। अब दास-प्रथा कहीं नहीं है। हाँ, ईसप की कहानियाँ आज भी हैं और वे हजारों सालों तक बनी रहेंगी, क्योंकि वे हमें एक सुंदर दुनिया गढ़ने की सीख देती हैं।

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